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एक सामान्य हिन्दू धर्मावलंबी से एक प्रतिबद्ध धर्मानुभिमानी हिंदू तक - एक यात्रा वृतांत

  चूँकि हम भारतवासी एक अभूतपूर्व-अलौकिक क्षण के साक्षी बनने जा रहे है एक ऐसा अध्याय जो 500 वर्षों के सतत संघर्ष को अपने आप मे समेटे हुए है,और इ स अमृत काल मे मैं खुद को एक हिन्दू के रूप में अपनी व्यग्तिगत यात्रा को पुनः पुरातन-सनातन पथ पर वापस देखता हुआ महसूस करता हूँ। एक हिन्दू के रूप में मेरे लिये ये एक नये युग का सूत्रपात है।  पंजाबी शरणार्थियों के कुल से आने वाला, मैं आर्य समाजी परिवार की पांचवीं पीढ़ी हूं, जिनके पूर्वजों को भारत-पाकिस्तान के बटवारें का दंश भोगने को मजबूर होना पड़ा,अपनी असीम पीड़ा को,दर्दनाक घांवो को हृदय के एक कोने में गहराई से दफन कर के उन्होंने साहस व  दृढ़ता से परिस्थितियों से सामंजस्य बैठाते हुए और कभी भावशून्यता ओढ़े हुए अपने जीवन को सुरक्षित और सफल बनाया। सैनिक छावनियों के वास्तविक धर्मनिरपेक्ष माहौल में पला-बढ़ा मेरा बचपन और साथ ही भिन्न-भिन्न धर्मों के मित्रों का एक समूह। तेरह वर्ष की उम्र तक मिशनरी स्कूलों में शिक्षित होने के बावजूद मेरे अन्य सिक्ख व ईसाई मित्रों के घरों के विपरीत मेरे घर पर हिन्दू रीति-रिवाजों द्वारा पूजा-पाठ औपचारिक न होकर जीवन के नित्यकर्म

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